हिमखबर डेस्क
जिला कुल्लू के अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव में अपनी अहम भूमिका निभाने वाली राज परिवार की दादी माता हिडिंबा का जन्म दिवस डूंगरी गांव में धूमधाम के साथ मनाया गया। इस दौरान एक दर्जन से अधिक देवताओं ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई और देव परंपरा के साथ ये मेला मनाया गया।
वहीं, इस मेले को देखने के लिए हजारों की संख्या में लोग एकत्र हुए और माता हिडिंबा के साथ-साथ उन्होंने यहां आए सभी देवी देवताओं का भी आशीर्वाद लिया। इसके साथ ही दिनभर यहां कुलवी नाटी का भी दौर चलता रहा और इस देव प्रक्रिया को देखने के लिए सैलानियों की भी भीड़ उमड़ी। ऐसे में माता के मंदिर में भी श्रद्धालु लाइनों में लगकर दर्शन करते रहे और माता हिडिंबा का आशीर्वाद लेते रहे।
कुल्लू राजवंश की दादी हैं हिडिंबा
माता हिडिंबा के गुर देवी चंद के अनुसार ‘माता हिडिंबा ने किसी समय में राज परिवार के पहले राजा विहंगमणि पाल को एक वृद्धा के वेश में दर्शन दिए थे। जानकारी के अनुसार वृद्धा को जब राजा विहंगमणि पाल ने उसके गंतव्य तक पहुंचाया तो वृद्धा के रूप में माता ने विहंगमणि पाल से कहा था कि जहां तक उसकी नजर जाती है।
वहां तक की संपत्ति उसी की है और माता ने उसे इस जनपद का राजा घोषित कर दिया था। तभी से राजा ने माता को दादी के रूप में पूजना आरंभ कर दिया था। इसी कारण से आज भी राजवंश के लोग दादी कहकर पुकारते हैं।
माता हिडिंबा के पहुंचने पर शुरू होता है कुल्लू दशहरा
पुजारी रमन शर्मा ने बताया कि ‘राजा जगत सिंह ने माता के दैविक वचनों का अनुसरण करते हुए ही 16वीं शताब्दी में कुल्लू दशहरा की परंपराओं का आगाज किया था। इसके चलते आज भी माता की पूजा और उनके कुल्लू में पहुंचने से पहले दशहरा की प्रक्रियाओं को आरंभ नहीं किया जाता।
माता हिडिंबा का यहां पहुंचने पर जोरदार स्वागत किया जाता है। जिला मुख्यालय के रामशिला में राजा का एक सेवक चांदी की छड़ी लेकर जाता है और पारंपरिक तरीके से माता का अभिवादन कर रघुनाथ के दरबार और फिर राजा के बेहड़े में पहुंचाता है। दशहरा उत्सव में दौरान सभी मेहमान देवताओं में माता हिडिंबा को भी पहली श्रेणी में रखा जाता है।
महाभारत की कथाओं के अनुसार जब पांडव अज्ञातवास पर थे तो वे हिमालय के इलाकों में पहुंचे तो यहां पर हिडिंब राक्षस का राज था। राक्षस हिडिंब ने अपनी बहन हिडिंबा को जंगल में भोजन की तलाश करने के लिये भेजा। वहां हिडिंबा ने पांचों पांडवों सहित उनकी माता कुंती को देखा।
इस दौरान हिडिंबा ने जब भीम को देखा तो उसे भीम से प्रेम हो गया, जिस कारण हिडिंबा ने किसी को नहीं मारा और ये बात राक्षस हिडिंब को बहुत बुरी लगी। फिर क्रोधित होकर हिडिंब ने पांडवों पर हमला किया। हिडिंब और भीम में काफी देर तक जमकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में भीम ने हिडिंब को मार डाला।
पांडू पुत्र भीम से किया विवाह
हिडिंबा ने इसके बाद भीम से शादी का प्रस्ताव रखा, लेकिन भीम ने विवाह करने से मना कर दिया। इस पर माता कुंती ने भीम को समझाया कि इसका इस दुनिया में अब और कोई नहीं है, इसलिए तुम हिडिंबा से विवाह कर लो। माता कुंती की आज्ञा से हिडिंबा एवं भीम दोनों का विवाह हुआ। इन्हें घटोत्कच नामक पुत्र हुआ, जिसने महाभारत की लड़ाई में अत्यंत वीरता दिखाई थी। घटोत्कट को भगवान श्रीकृष्ण से इंद्रजाल का वरदान प्राप्त था और उसके चक्रव्यूह को सिर्फ और सिर्फ खुद भगवान श्रीकृष्ण ही तोड़ सकते थे।
मां दुर्गा के आशीर्वाद से बनीं दुर्गा
कारदार रघुवीर नेगी पाण्डुपुत्र ने कहा कि ‘भीम से विवाह करने के बाद हिडिंबा राक्षसी नहीं रही और वह मानवी बन गई।कालांतर में मानवी हिडिंबा ने मां दुर्गा की आराधना की और देवी के आशीर्वाद से वो देवी बन गई। हिडिंबा का मूल स्थान चाहे कोई भी रहा हो पर जिस स्थान पर उसका दैवीकरण हुआ है वो मनाली ही है। पर्यटन नगरी मनाली में देवी हिडिंबा का मंदिर बहुत भव्य और कला की दृषिट से बहुत उतकृष्ठ है। इसे पैगेड़ा शैली में बनाया गया है।
ढूंगरी देवी के नाम से भी जानी जाती हैं हिडिंबा
हिडिंबा को ढूंगरी देवी भी कहते हैं। मंदिर के भीतर एक प्राकृतिक चट्टान है, जिसके नीचे देवी का स्थान माना जाता है।चट्टान को स्थानीय बोली में ‘ढूंग कहते हैं इसलिए देवी को ‘ढूंगरी देवी कहा जाता है। देवी को ग्राम देवी के रूप में भी पूजा जाता है।
यह मंदिर मनाली के निकट विशालकाय देवदार वृक्षों के मध्य चार छतों वाला पैगोड़ा शैली का है। मंदिर का निर्माण कुल्लू के शासक बहादुर सिंह ने 1553 में करवाया था। दीवारें परंपरागत पहाड़ी शैली में बनी हैं। प्रवेश द्वार पर लकड़ी की नक्काशी का उत्कृष्ट नमूना है।