11 अप्रैल को तीसरे नवरात्र पर पढ़े मां नैना देवी से जुड़ा इतिहास व मान्यताएं
हिमखबर डेस्क
आज चैत्र नवरात्रि का दूसरा दिन है, यानी आज मां ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है। कहा जाता है कि माता पार्वती ने शिव जी को पाने के लिए दाएं हाथ में जप की माला व बाएं हाथ में कमंडल लिए तपस्या की थी। तभी से माता ब्रह्मचारिणी की पूजा नवरात्र के दूसरे दिन की जाती है। आइए, माता ब्रह्मचारिणी का नाम लेकर हम आपको शक्तिपीठ चिंतपूर्णी की ओर ले चलें।
आइये जाने क्या है मंदिर का इतिहास
शक्तिपीठ मां चिंतपूर्णी मंदिर हिमाचल प्रदेश के ऊना जिला में स्थित है। चिन्तपूर्णी अर्थात चिंता को दूर करने वाली देवी, जिसे छिन्नमस्तिका के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि 14वीं शताब्दी में माई दास नामक दुर्गा भक्त ने यहां मंदिर का निर्माण करवाया था। माई दास के दो बड़े भाई थे दुर्गादास व देवीदास।
माई दास का अधिकतर समय पूजा-पाठ में व्यतीत होता था, जिस कारण वह घर का काम नहीं कर पाता था। देवीदास के भाइयों ने माई दास को परिवार से अलग कर दिया। इसके बाद वह घर छोड़कर निकल पड़े।
रास्ते में आराम करने एक वृक्ष के नीचे रुके तो स्वप्न में एक दिव्य कन्या ने दर्शन दिए और बोली कि मैं यहां विराजमान हूं, मेरी पिंडी बनवा कर यहां मेरी पूजा करो। मैं तुम्हारे वंश की रक्षा करुंगी।
जिसके बाद माईदास ने यहां माता का भवन बनवाया। ऐसा भी माना जाता है कि सती माता के चरण इस स्थान पर गिरे थे, और इस प्रकार इसे 51 शक्तिपीठों में से सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।
जानिए, क्यों चिंतपूर्णी माता का नाम पड़ा छिन्नमस्तिका
माता चिंतपूर्णी के नाम से जया व विजया की कथा भी प्रचलित है। प्राचीन काल में देवताओं और राक्षसों के बीच सौ वर्षों तक युद्ध चला, जिसमे मां ने चंडी का रूप धारण करके दुष्टों का संहार किया था। माता की सहायक दो योगिनायें जया और विजया थी, जिनकी रक्त पिपासा शांत नहीं हो रही थी।
इस पर देवी ने उन्हें इंतजार करने को कहा, लेकिन उन्होंने उनकी एक न मानी और हठ करने लगी। तब देवी ने उनकी रक्त पिपासा शांत करने के लिए शस्त्र से अपनी गर्दन काट कर तीन धाराएं निकाली, जिससे जया और विजया ने अपनी भूख शांत की। तभी से माता को छिन्नमस्तिका के नाम से जाना जाता है। देवी दुष्टों के लिए संहारक और भक्तों के लिए दयालु है।