चंडीगढ़, हिमखबर डेस्क
राजीव गांधी पंचायती राज संगठन के पंजाब ,ओर उत्तराखंड के प्रभारी केवल सिंह पठानिया ने की चंडीगढ़ में मटका चौक पर बैठे धरने पर किसानों से की मुलाकात।ओर उनकी मांगों पर दिया अपना समर्थन।
किसानों का कहना है कि कॉर्पोरेट कंपनियां कृषि क्षेत्र में आएं, किसी को तकलीफ नहीं है. लेकिन पिछले कुछ महीनों से सरकार, प्राइवेट कंपनियां और कुछ इकोनॉमिस्ट यह बता रहे हैं कि इन कानूनों से किसानों की आय एकदम से बढ़ जाएगी. इस बात को समझाने के लिए उनके पास कोई तर्क नहीं है.
ऐसे में अगर किसानों की आय में इजाफा होना निश्चित है तो उनकी एक ही डिमांड है कि एमएसपी को कानूनी रूप से मान्यता दे दिया जाए. देश के किसान लगभग दो महीनों से हाड़ कंपा देने वाली ठंड के बीच दिल्ली बॉर्डर पर बैठे हुए हैं. कई लोगों ने किसान आंदोलन पर सवाल भी उठाए. आंदोलन को लेकर कई नेताओं के विवादित बयान भी सामने आए हैं.
पाकिस्तान और खालिस्तान लिंक भी ढूंढा गया, लेकिन किसान अब तक डिगे नहीं हैं. ऐसे में देश को यह जानना बेहद जरूरी है कि किसानों की चिंताएं क्या हैं? क्यूं किसान पीछे हटने को तैयार नहीं हैं.
राजीव गांधी पंचायती राज संगठन प्रभारी केवल सिंह पठानियां ने कहा कि कांग्रेस पार्टी हमेशा किसानों के साथ है। जब जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनी है तब तब कांग्रेस सरकार ने किसानों के हितों में फैसले ले कर किसानों को मजबूत किया है ।लेकिन आज केंद्र में बैठी भाजपा की मोदी सरकार ने देश के हर बर्ग को निराश किया है और उनसे झूठ बोल कर उनकी भावनाओं को ठेस पहुचाई है।
किसानों के साथ काफी अनदेखी और नाइंसाफी हुई है। इकोनॉमिक सर्वे 2016 के अनुसार भारत में इस समय 17 राज्यों के किसानों की सालाना आय 20 हजार से भी कम है, यानि महीने में 1700 के आसपास. इतनी कम आय में आज के समय में एक गाय नहीं पाली जा सकती है, तो हम कैसे यह उम्मीद कर सकते हैं किसान अपना भरण पोषण कर पाएगा।
किसानों को यह डर है कि कॉर्पोरेट की इंट्री बाद जैसे सरकारी अस्पतालों और स्कूलो की व्यवस्था कमजोर हुई है, कुछ वैसा ही हाल कृषि क्षेत्र का भी हो जाएगा।मंडी व्यवस्था को समझने के लिए हमें समय के पहिए को थोड़ा पीछे ले जाना पड़ेगा. दरअसल, साल 1930 में किसान नेता छोटूराम ने व्यापारियों द्वारा किसानों के शोषण को देखते हुए नियंत्रित मंडी सिस्टम के लिए आवाज उठाई थी.
छोटूराम की इसी सोच को अपनाते हुए भारत सरकार ने बाद में हरित क्रांति के समय पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश समेत देश के कुछ अन्य राज्यों में एपीएमसी मंडियों के नेटवर्क का गठन किया था.व्यापार को व्यवस्थित करते हुए किसानों को व्यापारियों के शोषण से मुक्त कराया जा सकने के उद्देश्य के साथ ऐसा किया गया था.
यह वह समय था जब पहली बार किसानों को फसल के खरीद पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की सुविधा दी गई. इसका प्रावधान था कि किसान अपने फसल को मंडियो तक लाएगा. जिसे प्राइवेट कंपनियां न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदेंगी. कारणवश अगर किसी किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं हासिल होता, तो उसकी फसल सरकार खरीदती थी.
ऐसी व्यवस्था होने से किसानों को थोड़ा बहुत लाभ मिल जाता है. समय के साथ एपीएमसी मंडियों की व्यवस्था में भी थोड़ी खामियां आई हैं. इन खामियों को अब दूर करने की जरूरत है न कि मंडियो को एकदम से खत्म, या उसे कमजोर कर देने की. इस समय देशभर में कुल 7 हजार मंडियां है.
जनसंख्या और क्षेत्रफल के लिहाज से यह संख्या बेहद कम है. हमें क्षेत्रफल के हिसाब से देश में कुल 42 हजार मंडियों की जरूरत है. यानि कि हर पांच किलोमीटर के रेडियस पर किसानों के लिए एक एपीएमसी मंडी होना बेहद जरूरी है.
दरअसल, भारत में ज्यादातर संख्या छोटे किसानों की है. ऐसे में वह इतने संपन्न नहीं हैं कि मंडियों तक आसानी से पहुंच पाएं. यही वजह है कि वह अपने अनाज आढ़तियों को औने–पौने दाम पर बेच आते हैं. ऐसी स्थिति में सरकार को चाहिए कि मंडिया किसानों तक लायी जाए, न कि उन्हे मंडियों के पास जाना पड़े.
अगर मंडिया नजदीक होंगी तो किसान को फसल की कीमत सही मिलेगी और एमएसपी के डिलिवरी रेट में भी इजाफा होगा. पठानिया ने कहा कि कॉर्पोरेट कंपनियां कृषि क्षेत्र में आएं, किसी को तकलीफ नहीं है. लेकिन पिछले कुछ महीनों से सरकार, प्राइवेट कंपनियां और कुछ इकोनॉमिस्ट यह बता रहे हैं कि इन कानूनों से किसानों की आय एकदम से बढ़ जाएगी.
इस बात को समझाने के लिए उनके पास कोई तर्क नहीं है. ऐसे में अगर किसानों की आय में इजाफा होना निश्चित है तो उनकी एक ही डिमांड है कि एमएसपी को कानूनी रूप से मान्य कर दिया जाए. शांता कुमार कमेटी के अनुसार देश में केवल 6 प्रतिशत किसान ही एमएसपी का फायदा उठा पाते हैं.
एमएसपी को लीगलाइज करने पर इसे सौ प्रतिशत तक लाया जा सकता है. इसके अलावा हर साल सरकार की तरफ से 23 फसलों पर एमएसपी की सुविधा दी जाती है, लेकिन उस रेट पर खरीद केवल दो पर ही होती है. सरकार को यह कानून लाना चाहिए कि 23 के 23 फसलों पर आगे से न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे खरीद न को कानूनी रूप से मान्यता देने की भी सरकार से मांग करनी चाहिए. लेकिन वह यह करने को तैयार नहीं हैं,
बल्कि उनके लॉबिस्ट अखबारों में आर्टिकल लिख रहे हैं कि अगर एमएसपी को कानूनी मान्यता मिल गई तो सारे कृषि सुधार बर्बाद हो जाएंगे. ऐसे में कॉर्पोरेट की नियत में खोट दिखती है कि वह किसानों को उनके फसलों पर एमएसपी के बराबर मूल्य भी नहीं देना चाहते। इस आंदोलन के कई सकारात्मक पहलू रहे. पहले जो किसान एक दूसरे से मतभेद रखते थे, वो भी एक मंच पर साथ आ गए हैं.
ये एक बड़ी सफलता है.हालांकि, खालिस्तानी फंडिंग और पाकिस्तानी फंडिंग के नाम पर आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की गई है. लेकिन किसान डिगे नहीं. वह ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि यह पूरा मुवमेंट किसानों के लिए है, किसानों का ही बनाया हुआ है. जो किसान आंदोलन में हैं वह अपना सब कुछ दांव पर लगा कर आए हैं।
वहीं यहां आंदोलन कर रहे किसानों को यह पता ही नहीं है कि पूरी दुनिया के किसानों की नजरें उनपर है. अगर भारत में ये आंदोलन सफल हो जाता है, तो यह दुनिया भर के किसानों के लिए एक मॉडल हो जाएगा. उनको भी अपने यहां भी उत्पन्न समस्याओं से निपटने का एक रास्ता मिल जाएगा.
उम्मीद है भारतीय किसान के दुनिया भर के किसान के लिए रोल मॉडल साबित होंगे.इतिहासमे पहली बार भारत मे किसानों ने अपने हक के लिए अपनी जाने गबाई है और केंद्र सरकार अपनी हठ पर अड़ी है।मोदी सरकार को अपने देश के किसानों की नही बल्कि बड़े बड़े कॉरपोरेटो की चिंता है।