नूरपुर – स्वर्ण राणा
देवभूमि हिमाचल में हर वर्ष ऐसे कई मेलों और त्योहारों का आयोजन किया जाता है, जो कि न सिर्फ प्रदेश में, बल्कि समूचे भारत वर्ष में अपनी अलग पहचान रखते हैं। इन्हीं में से एक है नूरपुर का नागनी माता का मेला।
श्रावण माह (जुलाई-अगस्त) के हर शनिवार को यहां मेले लगते हैं। इस साल भी 20 जुलाई से 21 सितंबर तक मेलों का आयोजन किया जा रहा है। मान्यता है कि सर्पदंश से पीड़ित जो भी एक बार माता नागनी की शरण में आता है, वह ठीक हो जाता है।
लोगों की आस्था है कि सांप, बिच्छु और अन्य जहरीले जीव जंतुओं के काटने का उपचार यहां मंदिर में पानी पिलाकर और शक्कर (मिट्टी) का लेप लगाकर किया जाता है। ऐसा विश्वास है कि इस शक्कर को घर में रखने से कोई सांप और बिच्छू इत्यादि नहीं निकलता है।
यही कारण है कि नागनी माता का यह मंदिर लोगों की आस्था का एक प्रमुख केंद्र बन चुका है। प्रदेश सरकार ने भी नागनी मेले को जिला स्तरीय मेला घोषित किया हुआ है। इन मेलों में हजारों की संख्या में श्रद्धालु हिमाचल समेत पड़ोसी राज्यों से माता नागनी के दर्शन के लिए यहां पहुंचते हैं।
एक कथा यह भी
इस मंदिर के अस्तित्व में आने को लेकर एक दंतकथा प्रचलित है। इसके अनुसार इस जगह का नाम पूर्व में टीका कोढ़ी हुआ करता था, जो कि घने जगंलों से घिरा था। इसी जगंल में एक कोढ़ ग्रस्त वृद्ध रहता था। वह दुखी वृद्ध हर रोज भगवान से इस रोग से मुक्ति के लिए प्रार्थना करता था।
एक रात माता नागनी ने उसे स्वप्न में दर्शन दिए और उसे नाले में दूध की धारा बहती दिखी। स्वप्न टूटते ही उसे वास्तव में दूध की धारा दिखाई दी। जैसे ही उसने वह तरल धारा और शक्कर (मिट्टी) अपने शरीर पर लगाई, उसका कोढ़ समाप्त हो गया।
नागनी के अलावा कंडवाल स्थित छोटी नागनी में भी हर साल मेले लगते हैं। लोगों का विश्वास है कि जो कोई माता की भक्ति बिना किसी फल की इच्छा किए करता है उसे माता नागनी दर्शन जरूर देती है।
मंदिर स्थापना की दंतकथा
मंदिर की स्थापना को लेकर प्रचलित दंतकथा के अनुसार एक सपेरे ने माता नागनी के मंदिर में आकर उसे धोखे से अपने पिटारे में बंद कर लिया। जब माता ने रात को राजा जगत सिंह को दर्शन दिए तो उसने सपेरे से उसे छुड़ाने की प्रार्थना की।
जब वह सपेरा नूरपुर के कंडवाल में रुका तो राजा ने उस सपेरे से नागिन को मुक्त करवाया और भडवार में दोबार उसको उसके अपने असली स्थान पर पहुंचाया। नागनी माता को नागों की देवी सुरसा माता के नाम से भी जाना जाता हैं।
मेलों के दौरान या बीच-बीच में श्रद्धालुओं को नागनी के रूप में मां के साक्षात दर्शन जलधारा में, मंदिर के गर्भगृह में या प्रांगण में होते रहते हैं। कभी उनका रंग तांबे जैसा होता है और कभी स्वर्ण तो कभी दूधिया और कभी पिंडी के ऊपर बैठी नागनी दिखाई देती है।