आठ सौ साल पहले जहां गुरु इतवार नाथ ने ली थी जीवित समाधि, जानिए जुड़ा इतिहास
सिरमौर – नरेश कुमार राधे
राजगढ़ खैरी नाहन सड़क पर गिरी नदी के पावन तट पर स्थित आठ सौ साल पुरानी गुरु इतवार नाथ गिरी की तपोभूमि मठ ठोड़ निवाड़ में तीन दिवसीय धार्मिक, पारंपरिक और ऐतिहासिक मेला शुरू हो गया है। मेले का शुभारंभ मठ में गुरु गद्दी की पारंपरिक पूजा और हवन के साथ किया गया, जिसके बाद समाधि यात्रा निकाली गई।
समाधि यात्रा मठ से लेकर गुरु इतवार नाथ की समाधि तक निकाली गई, जो गिरी नदी के किनारे स्थित है। माना जाता है कि आठ सौ साल पहले यहां गुरु इतवार नाथ ने जीवित समाधि ली थी। इस यात्रा में राजगढ़ क्षेत्र के साथ-साथ शिमला जिले के बलसन क्षेत्र के भक्त भी शामिल हुए।

सभी भक्त वाद्य यंत्रों के साथ मठ से समाधि स्थल तक गए, जहां पूजा-अर्चना और झंडा चढ़ाने की रस्म अदा की गई। इसके बाद गुरु इतवार नाथ द्वारा लगाए गए सैकड़ों साल पुराने पीपल की पूजा की गई। मेले में विजय भारद्वाज ने बताया कि यह मठ जूना अखाड़ा समुदाय का है, जिसे गुरु इतवार नाथ ने बलसन क्षेत्र के राजा के सहयोग से बनाया था।
उन्होंने बताया कि यहां जलता हुआ धूना पिछले आठ सौ सालों से लगातार जल रहा है, जिसे गुरु इतवार नाथ ने सैकड़ों साल पहले प्रज्वलित किया था और आज भी चल रही है। भारद्वाज ने बताया कि कई शताब्दियों पहले गुरु इतवार नाथ ने यहां पानी और वनस्पति की कमी को दूर करने के लिए अपनी शक्ति का प्रयोग किया।
उन्होंने एक स्थान पर चिमटा मारकर जल निकाला, जो आज भी लोगों की प्यास बुझाता है। इसी प्रकार, उन्होंने एक सूखा डंडा यानि लाठी भूमि में गाड़ दी थी, जिससे कोंपलें निकल आई और उसने वट वृक्ष का रूप धारण कर लिया, जो आज भी मौजूद है।

यह मठ संत समाज के जूना अखाड़े से माना जाता है, जिससे यहां सत समाज का भी आवागमन बना रहता है। यहां पूजा का कार्य भी संतो द्वारा किया जाता है। यहां भक्तों को धूने की भस्म से तिलक किया जाता है और यही भस्म आशीर्वाद के रूप में भक्तों को दी जाती है। यहां आने वाले भक्त गुरु इतवार नाथ को अनाज, जैसे मक्की और गेहूं, भी भेंट करते हैं।
इस मेले में बलसन क्षेत्र से आने वाले भक्त अपने बच्चों का मुंडन संस्कार भी करवाते हैं। मेले का आयोजन तीन दिनों तक चलेगा, जिसमें भंडारा, खेलकूद प्रतियोगिताएं, और सांस्कृतिक संध्या का भी आयोजन किया जाएगा। मेले का समापन विशाल दंगल के साथ होगा। यह धार्मिक मेला स्थानीय संस्कृति और परंपराओं को जीवित रखने का एक महत्वपूर्ण अवसर है, जिसमें दूर-दूर से भक्त एकत्रित होकर अपने श्रद्धा भाव को प्रकट करते हैं।

