हिमखबर डेस्क
चलो रे डोली उठाओ कहार…। पालकी में हो के सवार चली रे, मैं तो अपने साजन के द्वार चली रहे…। बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले…। डोली सजा के रखना…। यह ऐसे गाने हैं, जिन्हें बेटी की शादी में जरूर गाया या बजाया जाता है। यह गाने उस डोली से प्रेरणा लेकर बनाए गए थे, जिस डोली में बेटी की विदाई की जाती थी, लेकिन अब सिर्फ गाने ही बचे हैं।
डोली का अस्तित्व तो खत्म ही हो गया है। कभी शादी, ब्याह में शाही सवारी मानी जाने वाली डोली आधुनिकता के दौर में विलुप्त हो गई है। आजकल की युवा पीढ़ी अब डोली को इतिहास के पन्नों से समझने का प्रयास करते दिखते हैं। पूरे देश से ही डोली का नाता रहा है।
नब्बे के दशक तक शादी ब्याह में डोली से जाने की परंपरा कायम रही, लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे समाज में डोली अपने अस्तित्व को लेकर संघर्ष करती दिखी। इसका कारण धीरे-धीरे समाज में आधुनिकता का पैर पसारना और डोली के स्थान पर शादी ब्याह में मोटर गाडिय़ों का चलन आ जाना माना गया।
आज के वर्तमान परिवेश में डोली की परंपरा करीब-करीब विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी है और कहार भी डोली उठाने के अपने पुश्तैनी व्यवसाय को छोडऩे को मजबूर हो गए हैं। एक जमाना था जब, शादी ब्याह में बारात के वक्त में डोली का अहम रोल माना जाता था। इसके बिना दरवाजा यानी बारात नहीं लगती थी, लेकिन बदलते दौर के इस वक्त में डोली की प्रथा अब धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रही है।
आज की युवा पीढ़ी को यह जानना बेहद जरूरी है कि आखिर डोली क्या होती है, डोली प्रथा क्या थी। डोली की प्रथा बहुत ही प्राचीन प्रथा रही है, लेकिन बदलते जमाने ने डोली के स्थान पर शादी ब्याह में लग्जरी गाडिय़ों ने स्थान ले लिया है।
क्या है डोली का इतिहास
डोली प्रथा का इतिहास काफी पुराना है। एक जमाना वो था, जब डोली राजाओं और उनकी रानियों के लिए यात्रा का प्रमुख साधन हुआ करती थी। इसे ढोने वालों को कहार कहा जाता था। शादी के लिए बारात निकलने से पूर्व दूल्हे की सगी संबंधी महिलाएं बारी-बारी से दूल्हे के साथ डोली में बैठती थी। इसके बदले कहारों को यथाशक्ति दान देते हुए शादी करने जाते दूल्हे को आशीर्वाद देकर भेजती थी।
दूल्हे को लेकर कहार उसकी ससुराल तक जाते थे। विदा हुई दुल्हन अपने ससुराल डोली में ही जाती थी। इस दौरान जब डोली गांवों से होकर गुजरती थी, तो महिलाएं और बच्चे कौतूहलवश डोली रुकवा देते थे तथा कहारों को पानी पिलाकर ही जाने देते थे, जिसमें अपनेपन के साथ मानवता और प्रेम भरी भारतीय संस्कृति के दर्शन होते थे, लेकिन आज डोली प्रथा लगभग समाप्त हो चुकी है।