जब आधुनिक मनोरंजन के साधन रेडियो टेलीविजन चलचित्र इंटरनेट आदि जनमानस को उपलब्ध नहीं थे तब प्राचीन धरोहर “लोक नाट्य कला भगत/रास ”ही मनोरंजन एवं शिक्षा का मुख्य स्रोत थे। हिमालय क्षेत्र में परंपरागत लोक नाट्य कलाकारों द्वारा गांवों की चौपालों में बिना मंच सजाए।
नूरपुर, देवांश राजपूत
जब आधुनिक मनोरंजन के साधन रेडियो, टेलीविजन, चलचित्र, इंटरनेट आदि जनमानस को उपलब्ध नहीं थे, तब प्राचीन धरोहर “लोक नाट्य कला भगत/रास ”ही मनोरंजन एवं शिक्षा का मुख्य स्रोत थे। हिमालय क्षेत्र में परंपरागत लोक नाट्य कलाकारों द्वारा गांवों की चौपालों में बिना मंच सजाए, रोशनी के प्राकृतिक स्रोतों के सहारे इस विधा का मंचन कर लोगों का मनोरंजन किया जाता था।
इसमें पौराणिक व ऐतिहासिक लोक कथाओं , जन समस्याओं , व्यंग्य कथानक , हास्य रस आख्यान प्रस्तुत किए जाते थे भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के सहयोग एवं हिमाचल प्रदेश भाषा, कला एवं संस्कृति विभाग के निर्देशन में सामाजिक व सांस्कृतिक संगठन “यूथ डेवलपमेंट सेंटर” द्वारा लुप्त हो चुके प्रसिद्ध लोक संस्कृति ”लोक नाट्य-भगत” जिसे स्वांग या रास भी कहा जाता है, को जिंदा करने की बेहतरीन कवायद की जा रही है। प्रदेश ने बढ़ते हुए आधुनिकीकरण के बावजूद अपनी समृद्ध पारंपरिक संस्कृति को कायम रखा है।
संगठन के निर्देशक कर्ण भूषण ने बताया कि हिमाचल प्रदेश की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का संवर्धन व संरक्षण करना हम सबका दायित्व है। वैश्वीकरण के इस युग में लोक संस्कृति की प्रासंगिकता के मायने बड़ी तेजी से बदल रहे हैं। युवाओं को प्राचीन संस्कृति को जानने व समझने का अवसर नहीं मिल रहा है। कोई भी राष्ट्र अपनी संस्कृति को भुलाकर तरक्की नहीं कर सकता है।
युवाओं को प्राचीन संस्कृति से रूबरू करवाना हम सबका दायित्व है। संगठन के प्रतिनिधि मोहिंदर ने बताया कि “यूथ डेवलपमेंट सेंटर” द्वारा इस वर्ष ”लोक नाट्य-भगत” बारे प्रशिक्षण कार्यशाला, स्टेज कार्यक्रमों, सेमिनारों, वार्ताओं आदि के माध्यम से इस विलुप्त हो रही लोक कला के संरक्षण, प्रचार-प्रसार के लिए कार्य किया जा रहा है। लोकनाट्य लोकमानस के जीवन में रचा-बसा आडम्बर-विहीन मनोरंजन का स्वस्थ साधन है, जिसमें कृत्रिमता का नितांत अभाव व सीधे जनमानस को उद्वेलित करता हुआ समयानुकूल समाज को कुछ न कुछ शिक्षा देता है।
भारत में विभिन्न सामाजिक और धार्मिक अवसरों के दौरान पर बृहद पारंपरिक नाट्य लोकनाट्य किया जाता है जिसको ग्रामीण या गांव का रंग-मंच बोला जाता है। यह पारंपरिक नाटक या लोकनाट्य भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण तथा धारणाओं को दर्शाता है।